देहरादून,वीरेंद्र कुमार पैन्यूली सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि विकास और आबादी की दौड़ में प्रकृति को जो नुकसान पहुंच रहा है, उसके प्रति दुनिया में सजगता लगातार बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी आयोग अर्थात यू एन स्टैटिस्टिकल कमीशन में एकत्रित देशों ने 11 मार्च 2021 को केवल बाजार भाव आधारित जीडीपी आकलन की जगह पर्यावरणीय आर्थिकी के आधार पर आकलन अपनाने को मंजूरी दी है। इसे इकोसिस्टम एकाउंटिंग फ्रेमवर्क कहा जा रहा है। इसमें आर्थिक संपन्नता और मानव कल्याण में प्रकृति के योगदान का भी आकलन व उसका मापन किया जाएगा। आयोग का मानना है कि इसके लिए देशों को प्रकृति को देखने व उसके मूल्यांकन करने की दृष्टि व सोच बदलनी पड़ेगी। प्रकृति के इकोसिस्टम पर हमारी आर्थिक गतिविधियों का क्या असर पड़ रहा है? प्रकृति हमें किस तरह प्रभावित करती है? हम किस प्रकार अपनी गतिविविधियों में बदलाव लाकर प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना आर्थिक विकास कर सकते हैं, इसके प्रति हम अब ज्यादा संवेदनशील हो सकेंगे। वन एवं अन्य पारिस्थितिकीय प्रणालियां समुदायों और देशों को बहुत लाभ पहुंचाती हैं, अत: आर्थिक पूंजी की तरह ही उनका मूल्यांकन व संरक्षण होना चाहिए। वर्तमान प्रणाली का जोर संरक्षण के बजाय विध्वंस पर है। हमें सोचना होगा कि जो चीजें हमें प्रकृति से मुफ्त मिल रही हैं, उनका क्या मोल है? जो लोग मुआवजा मांगने खड़े होते हैं, उनको तो हम मोल चुका देते हैं, पर प्रकृति मुआवजा नहीं मांग सकती, वह नुकसान झेलती रहती है। उसका मोल लोगों को समझ में नहीं आता। 11 मार्च के फैसले के पहले 2 मार्च 2021 को इसी संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव गुटेरस ने कहा कि आर्थिक नीतियों में प्रकृति का सही मान मूल्यांकन होना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि पिछले 50 साल में वैश्विक आर्थिकी पांच गुणा बढ़ी है, किंतु यह विकास प्रकृति की भारी कीमत पर हुआ है। अपने देश की बात करें, तो आपदा के ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां कोई नुकसान के आकलन के लिए जाता भी नहीं है। नुकसान का आकलन उन्हीं इलाकों में किया जाता है, जहां लोग रहते हैं। हिमालय के दुर्गम इलाकों या हमारे घने जंगलों में ऐसी प्राकृतिक आपदाएं होती रहती होंगी, जिनका आकलन कभी नहीं हो पाता है। विकास की कीमत प्रकृति केवल उन्हीं इलाकों में नहीं चुका रही है, जहां मानव बस्ती है, प्रकृति को तो हर जगह कीमत चुकानी पड़ रही है। 7 फरवरी 2021 को रेणी गांव के क्षेत्र में हिमस्खलन प्रेरित ऋषिगंगा और घौलीगंगा नदियों में आकस्मिक बाढ़ जनित त्रासदी के बाद चिन्हित ग्लेशियरों की निगरानी की बात की जा रही है, तो निर्जन क्षेत्रों में तो जाना ही होगा। निर्जन का भी संदर्भ मुख्यत: मानव के न होने से है, अन्यथा इन कथित निर्जन क्षेत्रों में जीव-जंतु व वनस्पति तो होते ही हैं। सोच बदलने की जरूरत है। हम प्रकृति के घाटे और मुआवजे पर बात नहीं करते हैं, बिजली परियोजना में कितने हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, यह जरूर सुर्खियों में आता है। वास्तव में किसी भी आपदा के बाद प्रकृति पर भार और बढ़ जाता है, प्रकृति को हम उसके हाल पर छोड़ देते हैं। इस सोच का खामियाजा हिमालय भी भुगतता आया है। जबकि हिमालय की पर्वत मालाएं वैश्विक जल मीनारें हैं, जैव विविधताओं का भंडार हैं, क्षेत्रीय व वैश्विक जलवायु की नियामक भी हैं। हिमालय भारतीय क्षेत्रफल के 16.2 प्रतिशत क्षेत्र में है। अधिकांश हिमालय घने वनों व ग्लेशियरों का क्षेत्र है। ये आपदाओं से सहज प्रभावित होते हैं। इन इलाकों का दुख भले चर्चा में न आता हो, पर इनसे लाभान्वित सभी होते हैं। तभी तो हिमालयी राज्य हजारों करोड़ रुपयों की ‘ग्रीन बोनस’ की मांग नीति आयोग व केंद्र सरकार से करते हैं। किसी बीमारी के संदर्भ में कहा जाता है कि ऐसी सावधानी से रहो कि इलाज की नौबत ही न आए। ठीक इसी तरह की चिंता प्रकृति के लिए भी होनी चाहिए। भूक्षरण व भूस्खलन रोकने के लिए जितना आपको खर्च करना पड़ता है, यदि उस क्षेत्र में पहले से बनी वानस्पतिक आच्छादन को नुकसान न पहुंचाया जाता या बरसात के प्राकृतिक जलागम क्षेत्रों को न नुकसान पहुंचाया जाता, तो वह खर्च बच जाता। ऐसे में, संयुक्त राष्ट्र का प्रयास बिलकुल सही दिशा में है। तभी लोग हर उत्पाद व सेवा में प्रकृति का योगदान समझने की ओर बढ़ेंगे।