इतिहास के हिसाब से देखें तो 1970 के दौर में भारत में ये समझ आने लगा था कि भारत में पानी की किल्लत है । इसे सुलझाने के लिए भारत सरकार ने UNICEF से मदद ली । ए.सी. लगे कमरों में गरीबों के हितैषी, ग्रामीणों की समस्या सुलझाने बैठे । आखिर तय हुआ कि इसमें भी भारत के संविधान वाला ही नुस्खा आजमाया जाए । तो अमेरिका में इस्तेमाल होने वाले हैण्ड पंप को भारत में कॉपी कर लिया गया । काफ़ी खर्चे के बाद हैण्ड पंप तैयार हो गया और उसे लगाया गया ।
कुछ ही महीने बाद जब दोबारा सर्वे करके इनके इस्तेमाल से होने वाला फायदा जांचने की कोशिश की गई तो पता चला कि सारे मूर्ख ग्रामीण तो अपने पुराने तरीकों से ही पानी निकाल रहे हैं । चिंतकों ने कारण जानना चाहा तो पता चला कि नए वाले हैण्ड पंप तो कबके खराब हो चुके । मरम्मत इतनी मुश्किल और खर्चीली कि सरकारी नल को छूता ही नहीं था । हुआ यूँ था कि अमेरिका के जिन नलों की नक़ल की गई थी वो एक परिवार दिन में मुश्किल से चार पांच बार इस्तेमाल करता था । यहाँ भारत में पूरा पूरा परिवार नल के सामने कतार में घंटों खड़ा रहता था ।
विदेश से आई महंगी चीज़ को फेंके जाने की नौबत आ गई । ऐसे ही दौर में शोलापुर के किसी अनपढ़, देहाती, कमअक्ल, मिस्त्री ने उसी टूटे हैण्ड पंप को फिर से रिपेयर कर डाला । इस कामयाबी की खबर थोड़े ही समय में धुल भरे इलाकों से होती ए.सी. कमरों में भी जा पहुँची । लोग देखने आये, और इस “जुगाड़” कहे जाने वाली तकनीक से वो हैण्डपंप बनता है जिसे आप आज हर तरफ देखते हैं। ये तथाकथित “जुगाड़” सस्ता भी था, टिकाऊ भी और पिछले पचास साल से इस्तेमाल भी होता है । मजेदार चीज़ देखिये कि जिस शोलापुर हैण्ड पंप के आधार पर ये बना है उसे पेटेंट इत्यादि देना तो दूर किसी ने उसका नाम भी याद नहीं रखा ।
इन्टरनेट पर ढूँढने की कोशिश की थी । लेकिन लिखित नहीं है । चूँकि ये लिखा हुआ नहीं है इसलिए लोग इसे भूल जायेंगे । चूँकि ये लिखा हुआ नहीं है इसलिए जब दल हित चिन्तक और वामी ये पूछेंगे कि बताओ भारतीय लोगों ने क्या बनाया ? कौन सा अविष्कार किया ? तो आप उसे सामने वाला हैण्ड पंप नहीं दिखा पाएंगे । सत्तर के दौर में किनकी सरकार थी ये बताने की जरुरत नहीं है । संविधान में जबरन “समाजवादी” शब्द ठूंसने वालों पर मेरी तरफ से एक गरीब की खोज को चुराने का इल्जाम भी दायर करें मी लार्ड । बाकी लिखकर ना रखने का नतीजा क्या होता है वो जब हैण्ड पंप दिखे तब याद कर लीजियेगा । लिखा हुआ ना होने के कारण उनकी मक्कारी से आपका राष्ट्रवादी जोश कैसे हारता है वो तो खैर देखने लायक हैइये है ।
ना चाहने पर भी दिख जाने वाला ये मार्क टू (Mark II) हैण्ड पंप हिन्दू समाज की “समाजवादियों” से हार का हर ओर लगा हुआ स्मारक है ।
काफी पहले की बात है जब हमारे एक मित्र के भड़कने वाले चाचा हम लोगों को बड़े रोचक लगा करते थे। रोचक इसलिए क्योंकि उनकी सारी सृजनात्मकता गालियाँ देने में नजर आती थी। स्कूल-कॉलेज के मैदान जैसी जगह किसी कोने में बठे वो किस्म-किस्म के विशेषणों का सृजन करते और हम लोग उन्हें उकसा उकसा कर रस लेते। उम्र में 5-7 साल बड़े ये चाचा कहलाने भर के चाचा थे, बाकी व्यवहार तो उम्र में ज्यादा बड़े न होने के कारण मित्रवत ही रहता था। इनके भड़कने का कारण भी बिलकुल तय था। मिथिलांचल में कोई न कोई बुजुर्ग हर दूसरे-तीसरे दिन मिथिला की संस्कृति अर्थात पान-मखान पर अहो-महो करता लोटने सा लगता और उससे ये भड़क जाया करते थे।
चाचा का कहना था कि किसी पढ़ाई में अच्छे नौजवान को बर्बाद करना हो तो उसे पान खाना सिखा दो! इससे होगा ये कि जब भी वो देर रात गए जागकर पढ़ाई कर रहा होगा तब उसे पान की तलब होगी। देर रात गए आस-पास की पान वाली दुकानें बंद होंगी और लड़के को पान खाने स्टेशन तक जाना होगा। आधा घंटा जाने में, आधा आने में, और फिर थकान, इससे उसका रात का पढ़ने का समय नष्ट हो जाएगा। यानी पान खाने भर का शौक लग गया, तो उसके किसी प्रतियोगिता परीक्षा में कामयाब होने की संभावना क्षीण हो जायेगी। कहने की जरूरत नहीं कि पान के नाम पर अहो-महो करते मैथिलों को पानी पी पी कर कोसने वाले ये चाचा खुद पान खाते थे।
एक छोटी सी बुरी आदत से लम्बे समय में कैसा नुकसान हो सकता है ये अब जरूर ध्यान में आ जाता है, उस दौर में हम लोग मजे लेने के लिए किसी बहाने से “मिथिला का कल्चर” जैसा कुछ जिक्र किसी घर आये बुजुर्ग के पास छेड़कर निकल लेते थे। फिर चाचा के कान में उस बुजुर्ग का आह-वाह करना जाता, और फिर पूरी शाम कहीं बैठे वो चुनिन्दा विशेषणों से उसे विभूषित करते। ऐसी ही छोटी-मोटी सी चीजों को बदलकर किस्म-किस्म के नुकसान किये गए हैं। फिरंगियों के दौर में तालाबों-जलाशयों पर राजा-महाराजाओं के खर्च का उपनिवेशवादियों को कोई फायदा नहीं दिखा। स्थानीय जल-वायु या पर्यावरण पर इनका क्या असर होता है, इससे फिरंगी उपनिवेशवादियों को कोई लेना-देना भी नहीं था।
नतीजा ये हुआ कि पहले तो तालाब-जलाशयों को मिलने वाला राज्य का समर्थन कम हो गया। फिंरंगियों के बाद जो भूरे साहब आये, उन्हें लगा सब कुछ तो हमारे कब्जे में होना चाहिए! लिहाजा अपनी आयातित विचारधारा के मुताबिक उन्होंने सारे अधिकार हथियाए और कर्त्तव्य भूल गए। आयातित विचारधारा के नारों में आज भी आपको “अधिकार” और “हकों” का जिक्र मिलेगा, कर्तव्यों की या जिम्मेदारी की बात वो किसी और पर थोपते हैं, खुद के लिए कभी नहीं करते। तालाब-जलाशय इस तरह पीडब्ल्यूडी नाम के विभाग को दे दिए गए और अधिकार जाते ही जिम्मेदारियां भी ग्राम पंचायतों और ग्रामीणों ने छोड़ दीं। जिम्मेदारियां छोड़ना, मतलब कम काम करना उस वक्त तो मजेदार लगा होगा, लेकिन ये भी कुछ पान खाने जैसा ही मज़ा था, जो थोड़े ही वर्षों में सजा देने वाला था।
इसपर एक तरफ से हमला हुआ हो ऐसा सोचना भी मूर्खता होगी। जो तालाब ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा थे उनसे लोगों को अलग करने के लिए बरसों प्रपंच रचे गए। भारत विविधताओं का देश है ये आयातित विचारधारा अच्छी तरह जानती थी। इसलिए इस “विविधता” पर “समानता का अधिकार” नाम के जुमले से लगातार प्रहार किया गया। पोखर-तालाब अक्सर मंदिर की देखरेख में होते थे तो मंदिरों की देख-रेख करने वाले महंतों-पुजारियों को मनगढ़ंत कहानियों-फिल्मों के जरिये धूर्त सिद्ध किया गया। कोई तालाब मवेशियों का होता, कोई सिंचाई और नहाने इत्यादि के लिए, पीने के पानी का तालाब अलग होता था। “समानता” होनी चाहिए कहकर ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि “ठाकुर के कुँए” पर छोटी ज़ात वालों को जाने नहीं दिया जाता। अब जब जलाशय सबके हो गए, तो वो किसी के नहीं रहे।
जब नियंत्रित करने का अधिकार ही न हो, तो भला उसकी साफ़-सफाई और रख-रखाव का खर्च और जिम्मेदारी कोई क्यों झेलेगा? जो लोग (ब्राह्मण, पुरोहित आदि) इन तालाबों-जलाशयों की देखभाल करती थी वो इन्हें छोड़कर जीविका की तलाश में कहीं और निकल गयी। जल संरक्षण के लिए परंपरागत उपायों के अलावा कोई और तरीका नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि आयातित विचारधारा जिस तथाकथित वैज्ञानिक पद्धति को परंपरागत से श्रेष्ठ बताते हुए साहित्य, फिल्म, नाटक, भाषण इत्यादि की रचना करती है, उस “वैज्ञानिक पद्दति” से जल का निर्माण नहीं किया जा सकता। पानी पहले बड़े शहरों से ख़त्म हुआ, और अब ये कमी आगे बढ़कर गाँव तक पहुँचने लगी है। दो चार दिन पहले एईएस से मर रहे जिन बच्चों के गांववालों ने प्रदर्शन किया था, और फिर शू-शासन ने पूरे गाँव पर मुकदमा किया, मुजफ्फरपुर के उस गाँव में भी टैंकर से पानी पहुँचता है।
तालाब-पोखरों के लिए जाने जाने वाले दरभंगा से तालाब करीब-करीब विलुप्त हो चुके हैं। स्मार्ट सिटी बन रहे पटना में जो तालाब थे उनमें से अधिकांश भरे जा चुके हैं। यहाँ का तारामंडल और “ईको-पार्क” भी किसी न किसी भरे हुए तालाब पर बना है। कोई एक विभाग भी ऐसा नहीं जिसके पास ये डाटा हो कि शहर में तालाब आखिर थे कितने और वो कहाँ-कहाँ मौजूद थे। स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद में बिहार के जो पांच शहर शामिल हैं, उनमें पहले से मौजूद तालाबों के अलावा नए तालाब कितने बनेंगे, इसकी कोई ख़ास योजना भी नहीं है। हाँ कुछ पुराने तालाबों का “जीर्णोद्धार” जैसा कुछ करने की सरकार बहादुर की कोशिशें दिखती हैं।
बाकी अगर आप शहरों में रहते हैं तो पानी की किल्लत और टैंकरों से होती जलापूर्ति तो देख ही चुके हैं। एक मामूली सा बदलाव क्या क्या बदल सकता है ये आपको पता है और पानी की समस्या पर सोचना होगा ये भी समझते होंगे। सोचियेगा, फ़िलहाल सोचने पर जीएसटी नहीं लगता!
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गीता बिष्ट
वेदों मे स्वच्छ जल का महत्व्। समाज के हित में राष्ट्र में स्वच्छ जल का होना शासन के दायित्व में था ।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यन्जनानां ।
या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु । ।
AV1.33 .2
(यासां राजा अवपश्यन्जनानां) जो राजा अपनी प्रजा की आवश्यकताओं का संज्ञान ले कर ( वरुणो याति मध्ये सत्यानृते) अपने शासनाध्यक्ष को जल के पवित्र करने के विषय के निरीक्षण पर नियुक्त करता है , कि वह यह सुनिश्चित करे कि जनता सब जल जो अग्नि पर उबाल कर, सूर्य द्वारा अथवा स्वर्ण के सूक्ष्माणुओं द्वारा पवित्र किए गए हों, उन का प्रयोग कर रही है । वे अत्यंत सुख और शांति से रहते हैं ।
प्राचीन समृद्ध भारत से चली आई परम्परा के अनुसार शरीर पर स्वर्णाभूषण धारण करने और ताम्र पात्र में जल रखने का यह अत्यंत महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आधार है कि मानव शरीर को स्वर्णाभूषण निरोगी रहने में सहायक हैं । ग्रहणियां पैर में बिछुए भी इसी लिए पहनती हैं दैनिक काम काज में गीले पैर रहने पर पैरों की अंगुलियों मे कवक संक्रमण fungus infection न हो । अमेरिका में NASA और अन्य वैज्ञानिकों द्वारा आधुनिक विज्ञान के अनुसार उत्कृष्ट धातुओं noble metals जस्ता, स्वर्ण, रजत, ताम्र के सूक्ष्माणु भिन्न भिन्न रोगाणुओं को नष्ट करके दूषित जल को स्वच्छ करते हैं।
स्वच्छ पेय जल पर यजुर्वेद का उपदेश.:
12. श्वा॒त्राः पी॒ता भ॑वत यू॒यमा॑पोऽअ॒स्माक॑म॒न्तरु॒दरे॑ सु॒शेवाः॑।
ताऽअ॒स्मभ्य॑मय॒क्ष्माऽअ॑नमी॒वाऽअना॑गसः॒ स्व॑दन्तु दे॒वीर॒मृता॑ऽऋता॒वृधः॑॥ यजु4.12॥
‘श्वात्राः पीता भवत यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः ता अस्मभ्यमयक्ष्मा अनमीवा अनागसः स्वदन्तु देवीरमृता ऋतावृधा’ यजु 4.12’ हे जलो जो तुम पीये गए हो, हमारे पेट में जा कर अच्छी सेवा करने वाले होओ । यह जल अनमीवा सूक्ष्म रोगाणु कृमियों से रहित, अयक्ष्मा यक्ष्मा इत्यादि रोगाणुपओं से रहित और अनागस: सर्प इत्यादि जाति के जीवों से रहित हों । ऐसे पवित्र और अमृत रूपी जल हम को नीरोग और बलिष्ट करें ।
AV1.5 सिंधु द्वीप आपो देवता: .
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन ! महे रणाय चक्षसे !! अथर्व 1/5/1,यजु 11.50, ऋ10.9.1
उत्तम जल जीवन को सुखमय और (स्वस्थ शरीर से) बल पराक्रम के लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं. जिस से हमारा जीवन में रमणीयताके दर्शन करने के लिए स्वस्थता प्रदान करते हैं ।
2.यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न: ! उशतीरिव मातर: !! अथर्व 1/5/2, यजु11.51, ऋ10.9.2
जैसे वात्सल्यमयी माता बालक को अपने स्तन्य का भागी बनाती हैं वैसे ही जल हमें अपने परम कल्याण्कारी रसों का भागी बनाएं.
3.तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ! आपो जनयथा च न: !!अथर्व1/5/3,यजु 11.52,ऋ10.9.3.
हमारे पेय पदार्थो, दूध इत्यादि में वह गुण हों जो हमारी प्रजनन शक्ति को बढ़ाएं. जिस के द्वारा ही हम सब जीवित हैं ।
4.ईशाना: वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् !
अपो याचामि भेषजम् !!अथर्व 1/5/4, ऋ10.9.5
(ईशाना) प्रशासन का यह दायित्व है कि सब निवारणीय रोगों को दूर करने की सामर्थ रखने वाले जल सब प्रजा को उपलब्ध हों | भावार्थ : समस्त जल स्वच्छ और प्रदूषण से मुक्त हों |
✍?
गीता बिष्ट