किस उपलब्धि का माध्यम है

Pahado Ki Goonj

किस उपलब्धि का माध्यम है गण तंत्र ? गणतंत्र दिवस पर मांगने-खाने की एक अलग परंपरा है जिसका सम्बन्ध “शुभकामनाओं” से है जो अग्रणी लोगों द्वारा सामान्य वर्ग को दी जाती है और जिसका माध्यम होता है अखबार या टीवी चैनल। आधुनिक युग में न्यूज़ पोर्टल भी इसका माध्यम बनने लगा है। इसके तहत शुभकामना के विज्ञापन दिए जाते हैं जो प्रकाशित होते हैं और जिनका भुगतान होता है। यह दरअसल अखबार वालों के मांगने-खाने का पर्व होता है। उन अखबार वालों के जो 365 दिन “समाजसेवकों” की सेवा करते हैं। लेकिन इस मौके पर समाजसेवी लोग अखबारवालों के फोन मुश्किल से ही रिसीव करते हैं।
ज़ाहिर है कि विज्ञापनों की यह परंपरा तो कभी व्यवस्था ने ही शुरू की होगी। बाद में जैसे-जैसे व्यवस्था बदली, धनपतियों का राजनीति में आगमन शुरू हुआ यह परंपरा और परवान चढ़ी। हालात बदले तो चुनावी राजनीति पूरे तौर पर ही लेन-देन पर आ गई और इसमें किसी ऐसे व्यक्ति के लिए गुंजाईश ही नहीं रही जिसके पास धन का अंबार न हो। अब ज़ाहिर है कि धन का अंबार खेती-किसानी या नौकरी-मज़दूरी में तो इकठ्ठा होता नहीं। यह तो कारोबार में ही इकठ्ठा हो सकता है और कारोबार भी ऐसा जिसे व्यवस्था का पूरा, सीधा और हर प्रकार का संरक्षण हासिल हो। जहाँ कारोबारी के हित का संरक्षण करने के लिए व्यवस्था कितना भी दूर तक, किसी भी हद तक जाने की हिम्मत और योग्यता रखती हो। यह एक हकीक़त है और दूसरी हकीकत यह है कि सियासत का प्रतितिनिधित्व अधिकांशतः नव-धनाढ्य कर रहे हैं। नव-धनाढ्य की विशेषता यह होती है कि वह कुछ अधिक धर्मभीरु, कुछ अधिक आस्थावान तथा कुछ अधिक अंधविश्वासी दिखाई देता है लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं। दरहक़ीक़त अपनी ऐसी छवि वह दो कारणों से बनाता है। एक यह कि वह दरअसल धर्म को जी नहीं रहा होता बल्कि धर्म का व्यवसाय कर रहा होता है। दूसरी यह कि अपनी इस छवि के कारण वह अपनी सामाजिक स्वीकारोक्ति बना रहा होता है। इसी कारण है कि वह धन अर्जन के बाद खुद को पहले धार्मिक, फिर सामाजिक और अंत में राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करता है।
यहीं दरअसल, उसका मूल चरित्र दिखाई देता है। वह चरित्र इस बात में है कि वह पूरे समाज से उसी प्रकार बर्ताव करता है जिस प्रकार सामान्य व्यक्ति ब्राह्मण के साथ व्यवहार करता है, अर्थात अपनी ज़रूरत पर उसे बुलाता है, जिमाता है, और फिर बात ख़त्म कर देता है। ज़रूरत न हो तो उसकी सुनता भी नहीं। मसलन, अभी महज़ 25 दिन पुरानी बात है जब पूरा नगर नववर्ष की शुभकामनाओं के होर्डिंग्स से सजा था। विभिन्न आयोजन हो रहे थे और “समाजसेवी” बने तमाम नव-धनाढ्य इन कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे, इन्हें फाइनेंस कर रहे थे और इन्हें आर्थिक योगदान दे रहे थे। यह तब की बात है जब लग रहा था कि निकाय चुनाव बस होने ही वाला था। तब समाचार-पत्र प्रतिनिधियों और विज्ञापन एजेंसियों के प्रतिनिधियों को बाकायदा आमंत्रित किया जा रहा था और उन्हें बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जा रहे थे। लेकिन 2 जनवरी को हाइकोर्ट के एक फैसले ने जैसे ही चुनाव को अनिश्चित काल के लिए टाला, तमाम तथाकथित समाजसेवी, तमाम राष्ट्रप्रेमी अपने खोल में लौट गए। अब नववर्ष से बड़ा मौक़ा, गणतंत्र दिवस सामने है। विज्ञापन एजेंसियों के प्रतिनिधि चाहते हैं कि समाजसेवी सामान्यजन के लिए बधाई और शुभकामना के होर्डिंग्स लगाएं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। समाजसेवी और राष्ट्रप्रेमी समाचार-पत्र प्रतिनिधियों की तो फ़ोन कॉल भी नहीं सुन रहे हैं। है न कमाल की बात। यह दरअसल, धर्म-भीरुता और मांगने-खाने की प्रवृत्ति के कारण हो रहा है। ऐसे में यह तो ठीक है गणतंत्र कुछ लोगों के लिए हर प्रकार की सुविधा, शक्ति हासिल करने जरिया है, लेकिन है यह जरिया ही। इसके प्रति आस्थावान कोई नहीं।

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राष्ट्रीय मतदाता दिवस  पर  मुख्य विकास अधिकारी ने मतदाताओं को  शपथ  दिलाई

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