मैं और मेरा पुरातन अतीत

Pahado Ki Goonj

मैं और मेरा पुरातन अतीत

  नेहरू विज्ञान केन्द्र, मुंबई के निदेशक थे भौतिक वैज्ञानिक डॉक्टर सुब्रह्मण्यम। वैज्ञानिक थे पर जनेऊ पहनते थे। एक बार टाईम्स के पत्रकार ने उनसे पूछा… आप तो वैज्ञानिक हैं फिर ये जनेऊ क्यों और कैसे? जनेऊ क्यों पहनते हैं आप? उनका जवाब कालजयी था।

उन्होंने कहा…
“मैं खगोलविद हूं। आसमान देख रहे हैं, भौतिकी का वो हिस्सा है हमारा क्षेत्र, अनंत। भौतिक आकाश में ये जो तारे हैं, वो क्या हैं? मैं तारामंडल का निदेशक क्यों हूं?

विज्ञान, दरअसल भविष्य का अतीत है। जब भी मैं तारों भरा आकाश देखता हूं, तो मैं अतीत में देख रहा होता हूं। ये तारे… वक्त की अलग अलग समतल की परतों में हैं और वे परतें, उस वक्त की हैं; जब हमारे पुरखे इस दुनिया में थे। ये तारे मेरे पूर्वजों के वक्त के हैं, जो मुझे दिख अभी रहे हैं। इस तरह पूरा आकाश मुझको, मेरे पुरखों से, मेरे पीतरों से जोड़ता है।

उसी तरह ये जनेऊ भी मुझको मेरे पुरखो से जोड़ता है।

मेरे पूर्वजों के गुणसुत्रों से ही मेरा वजूद है। मैं जो दिखता हूं और जो मैं हूं उनके सूत्रों से। ये जनेऊ भी तो सूत्र ही है… उनके भौतिक और जैविक नहीं, उनके आध्यात्मिक और वैचारिक गुणों का सूत्र। उनके वचन, संकल्प, आचरण और जीवन मूल्यों का सूत्र… इसी से मैं वैज्ञानिक होकर भी जनेऊ पहनता हूं। कि वक्त में डोर में लिपटे, विचार धागे हैं ये, मेरे पुरखों के विचार के धागे।”

कमाल कहा उन्होंने
कभी गौर किया कि जनेऊ धागा क्यों है? उसके परवल और तानी की खास गिनती क्यों है? वे मूल्य हैं… जीवन के मूल्य, जीने के एक खास तरीके का वचन, एक रिवायत, एक संस्कार के सूत्र। धागे ही सूत्र होते हैं। और संसार सूत्रों से ही बंधा हुआ है… धागों से…

तो जनेऊ पहनने से अच्छा इसलिए लगता है कि आप फौरन अपने पूर्वजों के आदर्शों, वचनों और मूल्यों से, अपनी जड़ों से जुड़ जाते हैं। अनायास आपकी एक सांस्कृतिक पहचान स्थापित हो जाती है, जो सीधा आपको आपके पीतरों से जोड़ती है… अपनी जड़ों से जोड़ने वाला धागा है, सूत्र है… जनेऊ।

और जड़ से जुड़ते, हरियाली तो छाती ही है, एक गरिमाबोध, एक संबल, आत्मबल तो आता ही है भीतर। तंतुओं की शक्ति से ही संसार चलायमान है। भौतिकी यही करता है… वो उन्ही तंतुओं की पड़ताल करता है। और हमारे जीवन मूल्य भी तंतुओं के बूते ही हम तक स्थानांन्तरित है। जनेऊ उसी से गरिमा और गौरव भरते हैं तन और मन में कि वो तंतु हैं..

कभी यज्ञोपवीत संस्कार की विधि पर गौर कीजिए।
पहले मूंज की डोर होती है… फिर धागा होता है…
जनेऊ… खरीदे नहीं जाते थे।…वे काते जाते थे… घर की मां, दादी यानि अनुभवी बुजुर्ग महिलाएं, तकली या चरखे पर जनेऊ कातती थीं। वे उसे मेड़ातीं (कई स्तरों पर फोल्ड, उमेंठन) करतीं थी। ये फोल्ड निर्धारित होते थे। परिवार की बुजुर्ग दादी, नानी, के हाथ से प्रेम और श्रद्धा बना जनेऊ… आशीर्वाद और मंगलकामनाओं से परिपूर्ण होता था। (बाद में ये बस पुरोहिताईन का काम रह गया। और अब तो वे भी बाजार से ही खरीदते हैं। बाजार ने सब बेच दिया। आशीर्वादों और मंगलकामनाओं तक का धंधा कर लिया।) खैर…

प्रेम से बने, मां के हाथ के पकवान का स्वाद क्यों होता है अदभुत? क्योंकि सूत्र होता है वहां, स्नेह सूत्र।

वैसा ही जनेऊ में भी होता था। जब भी बाबा, दादी से धोती मांगते होंगे… और दादी या मां; जिस श्रद्धा से धोती निकाल देती होंगी, वो आदर… एक गरिमापूर्ण रिश्ता स्थापित करता है। बिहार में धोतियां मोड़ी नहीं जातीं, उमेंठीं जाती हैं, रस्सियों की तरह। ऐंठन… उमेंठन… फिर वही सूत्र है… डीएनए भी उमेंठा ही हुआ है। ये जनेऊ में वही ऐंठन और उमेंठन है।

डीएनए की तरह, धोती और जनेऊ की ये उमेंठन भी अक्सर घर की स्त्रियों के हाथों ही दी गयीं होतीं थीं।

तो सूचनाएं सदैव उमेंठन के तरीके से ही बहती हैं। चाहे संस्कार की सूचना हो या संचार की सूचना। जनेऊ पीतरों से हम तक आने वाली सूचनाओं की उमेंठन है।

जनेऊ पहनने से इसीलिए एक गरिमाबोध होता है। वो सूत्र बंधन है… सदाचार के आचरण की वचनबद्धता। वो पीतरों के मूल्यों की रक्षा का संकल्प है।

जनेऊ हमें अपने पूरखों से जोड़ता है… इसी से उसे पहन खुद में आत्मविश्वास और सुरक्षा भाव आता है कि हम प्राचीन हैं।और लंबे अतीत के अभिभावकों की मंगल कामनाओं,आशीर्वचनों से आरक्षित और संरक्षित हैं।(शैलेंद्र विक्रम)

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