भारत और नेपाल की मानचित्र पर जंग

Pahado Ki Goonj

काठमाण्डू। नेपाल के लगभग सभी निजी क्षेत्र के मीडिया संस्थानों ने भारतीय विदेश मंत्रालय के बयान को यह कहते हुए स्थान दिया है कि श्नेपाल का ये कदम भारत के लिए अस्वीकार्य है। द काठमांडू पोस्ट अखबार ने कुछ विशेषज्ञों का नजरिया इस शीर्षक के साथ प्रकाशित किया है,। एक नए मानचित्र को लेकर नेपाल और भारत के बीच जंग की स्थिति.। इसी महीने में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कोविड-19 महामारी के ख़िलाफ भारत के साथ एकजुट रहने की प्रतिबद्धता जताई थी। लेकिन जब केपी शर्मा ओली ने नेपाल का नया नक़्शा जारी करते हुए यह स्पष्ट किया कि नेपाल अपनी जमीन का एक इंच हिस्सा भी नहीं छोड़ेगाश् तो नेपाल के सभी प्रमुख मीडिया संस्थानों ने उनके इस बयान को श्साहसिक और बोल्डश् बताया।
दैनिक अखबार नागरिक ने अपने संपादकीय में, जिसका शीर्षक है- शुक्रिया!। नेपाल सरकार से राजनयिक बातचीत शुरू करके, इस विवाद को सुलझानेश् का आग्रह किया है ताकि श्दोनों देशों के बीच अनूठे संबंध और भी अधिक ऊंचाइयों तक पहुँच सकें.लेकिन कांतिपुर अख़बार के एक संपादकीय लेखक चंद्र किशोर ने इस मुद्दे पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे हैं। द बॉउंड्री ड्रॉन शीर्षक वाले अपने लेख में उन्होंने चेतावनी दी है कि श्जब तक नेपाली लोगों की आवाजाही के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं किया जाता, और जब तक कालापानी के लोग भारत पर निर्भर हैं, तब तक नेपाली सरकार की दिवाली पर नए नक़्शे का जश्न मनाने की प्रस्तावित योजना हास्यास्पद है। इससे सीमा पर रह रहे लोगों की तकलीफों पर नमक छिड़कने के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा। चंद्र किशोर की रिपोर्ट नेपाल की सीमा पर काली नदी से पूर्व में बसे सुदूर पश्चिमी प्रांत के हालात पर रोशनी डालती है। जहाँ नेपाली लोग भारतीय ब्रिज, फुटपाथ और रोड का इस्तेमाल अपनी आवाजाही के लिए करने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर इस इलाक़े में बाजार, स्कूल और स्वास्थ्य सेवा केंद्र जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। इन सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों की ये हालत उन नारों से एकदम अलग है जिन्हें बीते दशकों में काठमांडू के लोगों से सुना गया है जिसमें वो भारत के कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख के क़ब्जे के ख़िलाफ आवाज उठाते रहे हैं।
भारत ने इन इलाक़ों पर अपना क़ब्जा होने से हमेशा इनकार ही किया है।

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