जंगलों की आग के लिए चीड़ से खतरनाक है बांज

Pahado Ki Goonj

देहरादून। उत्तराखंड के 71 फीसदी क्षेत्र में वन हैं। यह हिमालयी राज्य देश के पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील है और प्रदेश की सरकारें इसे देश का ऑक्सीजन टैंक भी कहती रही हैं। यह भी सत्य है कि हर साल उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगती है और अक्सर वन विभाग वनाग्नि रोकने में नाकाम साबित हुआ है। हर बार आग लगने पर सबसे ज्यादा दोष चीड़ को दिया जाता है। उत्तराखंड में पर्यावरणविद् और आमजन के बीच आमतौर पर यह धारणा है कि चीड़ के वनों की वजह से जंगलों में आग लगती और भड़कती है। चीड़ के वनों को विदेशी, जबरन थोपा गया, जल सरंक्षण का विरोधी भी माना जाता है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है। क्या चीड़ हिंदी पुरानी फिल्मों के विलेन की तरह हर गलत बात के लिए जिम्मेदार है।
इस मामले में मुख्य वन संरक्षक मनोज चंद्रन चीड़ को लेकर कई बातों को गलत बताते हैं और चीड़ के फायदे भी गिनाते हैं। चीड़ का वैज्ञानिक नाम है पाइनस रॉक्सबर्गी. यह मध्य हिमालय की एक कुदरती प्रजाति है। इसे पहाड़ों का कल्पवृक्ष करना गलत नहीं होगा। आज कई लोग चीड़ को अभिशाप के रूप में प्रचारित कर रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है। प्राचीन चीन प्राकृतिक रूप से दक्षिणी अभिमुख यानी पहाड़ की वह ढाल जो सूरज के सामने होती है, में पाया जाता है। यह हिस्सा आमतौर पर शुष्क रहता है और बांज या या अन्य चैड़ी पत्तियों वाले पेड़ों के लिए उपयुक्त नहीं रहता। ऐसे स्थानों पर कम पानी या नमी के बावजूद चीड़ अच्छी वृद्धि लेउत्तरी ढालों में जहां सूरज की रोशनी सीधे नहीं पड़ती है, जो हिस्सा आमतौर पर नम और ठंडा रहता है, बांज हिस्से में होता है। क्योंकि इसे काफी पानी की आवश्यकता होती है इसलिए यह जल स्रोतों और नालों के पास ही पैदा होता है।
बांज के पेड़ों की जड़ें भी अधिक नमी को सहने के लिए उपयुक्त होती हैं। यह कहना गलत है कि बांज के कारण पानी (का संरक्षण) होता है। दरअसल सत्य यह है कि पानी के कारण बांज होता है। चीड़ और बांज दोनों प्रजातियों का अपनी-अपनी जलवायु में योगदान ह और पानी को अपने तनों में जमा करता है। इसकी जल उपयोग क्षमता अन्य प्रजातियों से बेहतर होती है। आम धारणा के विपरीत चीड़ उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग का कारक नहीं हैै। चीड़ के पिरुल अत्यंत ज्वलनशील तो होते हैं लेकिन वनाग्नि के कारण कारण नहीं होते, बल्कि वनाग्नि में ये जंगल को नष्ट होने से बचाते हैं। वनाग्नि काल या ग्रीष्म काल में चीड़ के पत्ते गिरकर जंगल में पिरुल का एक आवरण सा बना देते हैं जिससे वाष्पीकरण कम होता है।
अगर किसी कारणवश जंगल में आग लगती है तो तारपीन जैसा ज्वलनशील तेल होने के कारण पिरुल तेजी से जलता है और यह आग को लेकर तेजी से ऊपरी दिशा में भागता है। इससे केवल ऊपरी पिरुल जलकर खाक होता है और उसके नीचे पेड़ की जड़ें और अन्य पौधों की जड़ों के साथ ही मिट्टी तक ताप पहुंचने से बचता है। इस कारण वर्षा आने पर जंगल पिर से हरा-भरा हो जाता है। परंतु यही आग अगर बांज के जंगलों में लगती है तो कई गुना खतरनाक होती है। बांज के पत्तों से गिरा ह्यूमस कई दिनों तक सुलगता रहता है जिससे पूरा जंगल सूख जाता है। आम लोगों को बांज के जंगलों में आग का विकराल रूप नहीं दिखाई देता हालांकि इनकी आग चीड़ के जंगलों की आग के मुकाबले कई गुना खतरनाक होती है। चीड़ के जंगलों की आग तभी खतरनाक होती है जब अवैज्ञानिक ढंग से लिए गए लीसे से छांव में आग लगती है।

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