9/11 के 18 सालः सवाल- क्या आतंक के खिलाफ फेल रहा अमरीका

Pahado Ki Goonj

न्यूयार्क। 18 साल पहले 11 सितंबर के दिन न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था जिसके बाद दुनिया की राजनीति बदल गई. अमरीका ने बिना वक्त गंवाए अफगानिस्तान में चरमपंथ के खिलाफ लड़ाई का मोर्चा खोल दिया और तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया।
मगर 18 साल बाद अमरीका उसी तालिबान से बात कर रहा था, और समझौते के करीब पहुँच चुका था जब अचानक से राष्ट्रपति ट्रंप ने मुलाकात रद्द कर दी। 2017 में ट्रंप प्रशासन ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा योजना जारी की थी। उसमें दिखता है कि अमरीका की विदेश नीति आतंक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई से हटकर पुरानी नीति पर लौट आई है, जिसमें उन्होंने चार अंतरराष्ट्रीय ख़तरों की पहचान की है। पूरी दुनिया के हिसाब से चीन और रूस का खतरा, और खुद अमरीका के लिए उत्तर कोरिया और ईरान के परमाणु कार्यक्रमों का खतरा। तो अब अमरीका की विदेश नीति और उसका बजट इन खतरों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा है और जो श्आतंक के खिलाफ उनकी लड़ाई थी, उससे वो पीछे हटने की कोशिश कर रहे हैं। .पिछले एक साल से दिख रहा है कि अमरीका सीरिया, इराक और खास तौर पर अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने की कोशिश कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि अब उनसे उतना बड़ा ख़तरा नहीं रहा, ख़ास तौर से इस्लामिक स्टेट की ताकत खत्म होने के बाद.और इस वजह से अमरीका जिन देशों को आतंक के विरुद्ध लड़ाई के लिए जो आर्थिक सहायता देता था, उसमें भी कटौती कर रहा हैं।
यानी कहा जा सकता है कि अमरीका की आतंक के खिलाफ लड़ाई एक तरह से खत्म होने की ओर बढ़ रही है। वैसे एक बात है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अपनी तरफ से कोई नई जंग नहीं शुरू की. ओबामा ने भी कोई नई जंग नहीं शुरू की थी, मगर उन्होंने पुरानी जंग को और आक्रामक बना दिया था। उनके समय ही ड्रोन्स का इस्तेमाल बढ़ा और आम लोग निशाना बने। तो एक तरह से ट्रंप ट्विटर और बयानों से अत्यधिक आक्रामक लगते जरूर हैं। मगर उनके समय विदेश नीति वैसी आक्रामक नहीं हुई है.लेकिन ये जरूर है कि ट्रंप ने ओबामा और बुश के समय जो आक्रामक नीति थी उसे जारी रखा, ख़ास तौर से इस्लामिक स्टेट को खत्म करने के मकसद से जारी नीति को। यहाँ ध्यान देने की बात है कि अमरीकी विदेश मंत्रालय 1990 से अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी घटनाओं के बारे में एक सालाना रिपोर्ट जारी करता है और उसमें अगर देखें तो 2000-2001 के साल में दुनिया भर में औसतन 100-150 चरमपंथी हमले हुआ करते थे।

लेकिन अमरीका और ब्रिटेन के इराक पर हमले के बाद चरमपंथी हमलों की संख्या 2004 में 70,000 तक पहुँच गई. इनमें से ज्यादातर हमले इराक में ही हो रहे थे.तो एक तरह से 9ध्11 के बाद अमरीका ने जो कदम उठाए उसने चरमपंथ को खत्म करने के बदले चरमपंथ को और मजबूत कर दिया. खासतौर से मध्यपूर्व में, इराक में, सीरिया में और अफगानिस्तान में। जब तक सोवियत संघ अफगानिस्तान में था, कभी आत्मघाती हमला नहीं हुआ. सद्दाम हुसैन ने 20 साल तक इराक में जुल्म किया, कभी आत्मघाती हमला नहीं हुआ। अमरीका जब दोनों मुल्कों में पहुँचता है, आत्मघाती हमले शुरू हो जाते हैं।

तो ये जो चरमपंथ को मजबूत करने में अमरीका की एक भूमिका है जिसे अभी तक अमरीका के नीति-निर्माता नहीं मानते हैं। इस वजह से उनकी नीतियों में लगाए गए अनुमानों में हमेशा गलती होती है.अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के समय जो मसले परेशानियों की जड़ थे, वे अब भी कायम हैं। मुस्लिम देशों में ना सुरक्षा है, ना लोकतंत्र है, ना आर्थिक विकास है। सोशल मीडिया की वजह से इन देशों की जिंदगी और दूसरे देशों की जिंदगी का फर्क सबको नजर आता है। तो इससे जो असंतोष, गुस्सा और नफरत पैदा हो रही है वो अब भी बनी हुई है।
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों का मसला हो, चीन में वीगर मुसलमानों का मसला हो और कश्मीर को लेकर जो कुछ लिखा जा रहा है, उससे अंतरराष्ट्रीय तौर पर मुसलमानों को लग रहा है कि उन पर अत्याचार हो रह है और कोई उनकी मदद के लिए नहीं आ रहा। इससे उपजा गुस्सा और असंतोष जिहादी मानसिकता को हवा देता है। लोग जिन कारणों से जिहादी बनने को प्रेरित होते थे वो कारण कम नहीं हुए हैं। ये जरूर है कि जिहादियों से लड़ने वाली संस्थाओं और मुल्कों की काबिलियत बढ़ गई है। उनके पास जानकारियाँ बढ़ गई हैं जिससे वो खतरे को काबू जरूर कर पा रहे हैं, मगर खतरे को खत्म नहीं कर पा रहे।

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